नियंत्रित और सादगी भरी जीवनशैली से परिपूर्ण रतन टाटा नहीं रहे :उन्होंने ज़िंदगी भर टाटा समूह के कारोबार को चमका कर रखा था , रतन टाटा की भूमिका को हमेशा याद रखा जाएगा.
सन 1992 में इंडियन एयरलाइंस के कर्मचारियों के बीच एक अद्भुत सर्वेक्षण करवाया गया.
उनसे पूछा गया कि दिल्ली से मुंबई की उड़ान के दौरान ऐसा कौन सा यात्री है जिसने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया है? सबसे अधिक वोट रतन टाटा को मिले.
जब इसका कारण ढूंढने की कोशिश की गई तो पता चला कि वो अकेले वीआईपी थे जो अकेले चलते थे. उनके साथ उनका बैग और फ़ाइलें उठाने के लिए कोई असिस्टेंट नहीं होता था.
जहाज़ के उड़ान भरते ही वो चुपचाप अपना काम शुरू कर देते थे. उनकी आदत थी कि वो बहुत कम चीनी के साथ एक ब्लैक माँगते थे.
गिरीश कुबेर टाटा समूह पर चर्चित किताब ‘द टाटाज़ हाउ अ फ़ैमिली बिल्ट अ बिज़नेज़ एंड अ नेशन’ में लिखते हैं, ”जब वो टाटा संस के प्रमुख बने तो वो जेआरडी के कमरे में नहीं बैठे. उन्होंने अपने बैठने के लिए एक साधारण सा छोटा कमरा बनवाया. जब वो किसी जूनियर अफ़सर से बात कर रहे होते थे और उस दौरान कोई वरिष्ठ अधिकारी आ जाए तो वो उसे इंतज़ार करने के लिए कहते थे. उनके पास दो जर्मन शैफ़र्ड कुत्ते होते थे ‘टीटो’ और ‘टैंगो’ जिन्हें वो बेइंतहा प्यार करते थे.”
”कुत्तों से उनका प्यार इस हद तक था कि जब भी वो अपने दफ़्तर बॉम्बे हाउस पहुंचते थे, सड़क के आवारा कुत्ते उन्हें घेर लेते थे और उनके साथ लिफ़्ट तक जाते थे. इन कुत्त्तों को अक्सर बॉम्बे हाउस की लॉबी में टहलते देखा जाता था जबकि मनुष्यों को वहाँ प्रवेश की अनुमति तभी दी जाती थी, जब वो स्टाफ़ के सदस्य हों या उनके पास मिलने की पूर्व अनुमति हो.”
रतन टाटा को भी उनकी वक्त की पाबंदी के लिए जाना जाता था. वो ठीक साढ़े छह बजे अपना दफ़्तर छोड़ देते थे. वो अक्सर चिढ़ जाते थे अगर कोई दफ़्तर से संबंधित काम के लिए उनसे घर पर संपर्क करता था. वो घर के एकाँत में फ़ाइलें और दूसरे काग़ज़ पढ़ा करते थे.
अगर वो मुंबई में होते थे तो वो अपना सप्ताहाँत अलीबाग के अपने फार्म हाउस में बिताते थे. उस दौरान उनके साथ कोई नहीं होता था सिवाए उनके कुत्तों के. उनको न तो घूमने का शौक था और न ही भाषण देने का. उनको दिखावे से चिढ़ थी.
बचपन में जब परिवार की रोल्स-रॉयस कार उन्हें स्कूल छोड़ती थी तो वो असहज हो जाते थे. रतन टाटा को नज़दीक से जानने वालों का कहना है कि ज़िद्दी स्वभाव रतन की ख़ानदानी विशेषता थी जो उन्हें जेआरडी और अपने पिता नवल टाटा से मिली थी.
सुहेल सेठ कहते हैं, “अगर आप उनके सिर पर बंदूक भी रख दें, तब भी वो कहेंगे, मुझे गोली मार दो लेकिन मैं रास्ते से नहीं हटूँगा.”
अपने पुराने दोस्त के बारे में बॉम्बे डाइंग के प्रमुख नुस्ली वाडिया ने बताया, “रतन एक बहुत ही जटिल चरित्र हैं. मुझे नहीं लगता कि कभी किसी ने उन्हें पूर्ण रूप से जाना है. वो बहुत गहराइयों वाले शख़्स हैं. निकटता होने के बावजूद मेरे और रतन के बीच कभी भी व्यक्तिगत संबंध नहीं रहे. वो बिल्कुल एकाकी हैं.”
कूमी कपूर अपनी किताब ‘एन इंटिमेट हिस्ट्री ऑफ़ पारसीज़’ में लिखती हैं, “रतन ने मुझसे खुद स्वीकार किया था कि वो अपनी निजता को बहुत महत्व देते हैं. वो कहते थे शायद मैं बहुत मिलनसार नहीं हूँ, लेकिन असामाजिक भी नहीं हूँ.”
टाटा की जवानी के उनके एक दोस्त याद करते हैं कि टाटा समूह के अपने शुरुआती दिनों में रतन को अपना सरनेम एक बोझ लगता था.
अमेरिका में पढ़ाई के दौरान ज़रूर वो बेफ़िक्र रहते थे क्योंकि उनके सहपाठियों को उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में पता नहीं होता था.
रतन टाटा ने कूमी कपूर को दिए इंटरव्यू में स्वीकार किया था, “उन दिनों विदेश में पढ़ने के लिए रिज़र्व बैंक बहुत कम विदेशी मुद्रा इस्तेमाल करने की अनुमति देता था. मेरे पिता क़ानून तोड़ने के हक़ में नहीं थे इसलिए वो मेरे लिए ब्लैक में डॉलर नहीं ख़रीदते थे. इसलिए अक्सर होता था कि महीना ख़त्म होने से पहले मेरे सारे पैसे ख़त्म हो जाते थे. कभी कभी मुझे अपने दोस्तों से पैसे उधार लेने पड़ते थे. कई बार तो कुछ अतिरिक्त पैसे कमाने के लिए मैंने बर्तन तक धोए.”
रतन सिर्फ़ 10 साल के थे जब उनके माता-पिता के बीच तलाक़ हो गया. जब रतन 18 वर्ष के हुए तो उनके पिता ने एक स्विस महिला सिमोन दुनोयर से शादी कर ली.
उधर उनकी माता ने तलाक़ के बाद सर जमसेतजी जीजीभॉय से विवाह कर लिया. रतन को उनकी दादी लेडी नवाज़बाई टाटा ने पाला.
रतन अमेरिका में सात साल रहे. वहाँ कॉर्नेल विश्वविद्यालय से उन्होंने स्थापत्य कला और इंजीनियरिंग की डिग्री ली. लॉस एंजिलिस में उनके पास एक अच्छी नौकरी और शानदार घर था. लेकिन उन्हें अपनी दादी और जेआरडी के कहने पर भारत लौटना पड़ा.
उनके साथ उनकी अमेरिकी गर्लफ़्रेंड भी भारत आईं लेकिन वो यहाँ के जीवन से सामंजस्य नहीं बैठा सकीं और वापस अमेरिका लौट गईं. रतन टाटा ताउम्र अविवाहित रहे. सन 1962 में रतन टाटा ने जमशेदपुर में टाटा स्टील में काम करना शुरू किया.
गिरीश कुबेर लिखते हैं, “रतन जमशेदपुर में छह साल तक रहे जहाँ शुरू में उन्होंने एक शॉपफ़्लोर मज़दूर की तरह नीला ओवरऑल पहनकर अप्रेंटिसशिप की. इसके बाद उन्हें प्रोजेक्ट मैनेजर बना दिया गया. इसके बाद वो प्रबंध निदेशक एसके नानावटी के विशेष सहायक हो गए. उनकी कड़ी मेहनत की ख्याति बंबई तक पहुंची और जेआरडी टाटा ने उन्हें बंबई बुला लिया.”
इसके बाद उन्होंने ऑस्ट्रेलिया में एक साल तक काम किया. जेआरडी ने उन्हें बीमार कंपनियों सेंट्रल इंडिया मिल और नेल्को को सुधारने की ज़िम्मेदारी सौंपी.रतन के नेतृत्व में तीन सालों के अंदर नेल्को (नेशनल रेडियो एंड इलेक्ट्रॉनिक्स) की काया पलट हो गई और उसने लाभ कमाना शुरू कर दिया. सन 1981 में जेआरडी ने रतन को टाटा इंडस्ट्रीज़ का प्रमुख बना दिया.
हालांकि इस कंपनी का टर्नओवर मात्र 60 लाख था लेकिन इस ज़िम्मेदारी का महत्व इसलिए था क्योंकि इससे पहले टाटा खुद सीधे तौर पर इस कंपनी का कामकाज देखते थे. लेकिन इस सब के बावजूद रतन टाटा की गिनती हमेशा भारत के सबसे भरोसेमंद उद्योगपतियों में रही.
जब भारत में कोविड महामारी फैली तो रतन टाटा ने तत्काल 500 करोड़ रुपए टाटा न्यास से और 1000 करोड़ रुपए टाटा कंपनियों के माध्यम से महामारी और लॉकडाउन के आर्थिक परिणामों से निपटने के लिए दिए. ख़ुद को गंभीर जोखिम में डालने वालों डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों के रहने हेतु अपने लक्ज़री होटलों के इस्तेमाल की पेशकश करने वाले पहले शख़्स भी रतन टाटा ही थे.
आज भी भारतीय ट्रक चालक अपने वाहनों के पिछले हिस्से पर ‘ओके टाटा’ लिखवाते हैं ताकि ये पता चल सके कि ये ट्रक टाटा का है, इसलिए भरोसेमंद है. टाटा के पास एक विशाल वैश्विक फ़ुटप्रिंट भी है. ये ‘जैगुआर’ और ‘लैंडरोवर’ कारों का निर्माण करता है और ‘टाटा कंसलटेंसी सर्विसेज़’ दुनिया की नामी सॉफ़्टवेयर कंपनियों में से एक है. इन सबको बनाने में रतन टाटा की भूमिका को हमेशा याद रखा जाएगा.