धर्म कर्म – विष्णु शर्मा कृत लेख
विष्णु शर्मा :
जब कुछ लेने का विचार मन में है तो धर्म ,परोपकार सर्वहित को छोड़ स्वार्थ व लोभ कहलाता है।
धर्म कर्म में प्रभु के द्वारा प्रदत्त साधन संपत्ति संसाधन में संतुष्ट रहना व कम से कम लेना व अधिक से अधिक देने की परिकल्पना की गई है।
Raipur chhattisgarh VISHESH : “मन चंगा तो कटौती में गंगा” ,”जहा चाह वहा राह” ,”तेरा तुझ को अर्पण” जैसी कहावत सनातन अध्यात्म से निकली है।
आप प्रभू की भक्ति भी निस्वार्थ भाव से करे एवम् प्रभू से कुछ ना मांगकर जो मिले उसे स्वीकार करना ही धर्म है।
आज महत्वकांक्षा,लोभ ,सम्मान, नाम- शोहरत, स्वार्थ, प्राप्ति को केन्द्र में रखकर धर्म के रास्ते पर भटकने की राह तरह तरह की है जिसके कारण वास्तविक धर्म के कार्य नही हो पाते है।
आप जब धर्म कर्म करे तो केवल ईश्वर को साक्षी मानकर करे ना की सामने खड़ी भीड़ या आपको कनखियो से देखने वाले किसी व्यक्ति के प्रभाव में आकर धर्म कर्म का ढोंग करे…*
कम से कम लेकर अधिक से अधिक देने की अवधारणा के आधार पर ही संत उघाड़े रहकर तो कुटिया में रहकर, एक समय ही अन्न ग्रहण कर तो जंगलों में तपस्या कर अपना पूरा जिवन समाज के उत्थान के लिए देते आए है।
प्राप्ति चाहे धन हो, पद हो, मान हो ,सम्मान हो , नाम हो या वाहवाही हो की रखना धर्मकर्म से विमुख करने के कारण होते है
धर्मनिष्ठ बने 👍सहजता से लिखे 👍 बोले 👍 पूजा करे👍 दान करे👍 सम्मान करें 👍 नाम करे👍
असहजता ही अधर्म का मार्ग है ऐसा मेरा मानना है।